Friday, April 18, 2014

थी जिसकी वो हक़दार सदा

थी सदियों से उसकी पुकार 
कि उसको अपना हक़ मिले। 
इस संघर्ष में थी आहत,
न किसी ने उसके ज़ख़्म सिले। 
उसकी हर मांग के बदले में,
थे हर सितम उसके लिए। 
थे ज़ख्म जो भी उसको मिले,
आंसुओं ने उसको बयां  किए। 
पर आंसुओं को पोछती, 
हक़ के लिए लड़ती रही। 
लांघ के हर दहलीज वो 
आगे ही बढ़ती रही। 

टूटे न उसके हौसले 
और पा लिया उसने वो सब,
थी जिसकी वो हक़दार सदा। 
थी जिसकी वो हक़दार सदा। 

थी बंद इकलौते कमरे में। 
न घूंघट उसका हटा कभी। 
पर उसके माथे के तेज से,
न अंधेरा टिका कभी। 
न किसी ने सोचा था कभी,
कि आसमां वो छू लेगी। 
और प्रजातंत्र के हर तपके को 
उसका सारा अब हक़ देगी। 
अंतरिक्ष में जाकर उसने,
कुछ रहस्य भी सुलझाए थे। 
और कभी बेघर बच्चों पे,
उसने आँचल फैलाये थे। 

जो था 
सैलाब आंसुओं का 
फिर भी डाली कश्ती अपनी। 
घूंघट से बना के आसमां,
बसा गयी बस्ती अपनी। 

फ़िर रुका न उसका काफ़िला,
और जीत लिया उसने वो सब 
थी जिसकी वो हक़दार सदा। 
थी जिसकी वो हक़दार सदा। 

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